GANDHI PEACE FOUNDATION – JANUARY 30, 2018


गांधी कौन था?

मोहम्मद हामिद अंसारी

(पूर्व उप-राष्ट्रपति, भारत)

अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के 70वें जन्म दिवस पर यह कहा था कि आने वाली पीढ़ियां बड़ी मुश्किल से इस पर यकीन करेंगी कि कभी हाड़-मांस का एक ऐसा मनुष्य भी इस धरती पर चला था। आज (30 जनवरी 2018) हमने नफरत और हिंसा से उबलते एक व्यक्ति द्वारा उनकी हत्या की 70वीं बरसी मनाई है।

तब यह उचित ही कहा गया था कि मानवता के इस सच्चे सेवक और गरीबों के हितैषी ने जैसे अमरत्व को प्राप्त किया है, वैसी मिसालें बेहद कम होंगी।

उर्दू शायर जोश मलीहाबादी ने महात्मा के लिए लिखी श्रद्धांजलि अथवा मर्सिया का शीर्षक अस्सलाम ऐ हिंद के शाह—ए-शहीदां अस्सलाम रखा था। जन-जन के दिलों में बसी उस शख्सियत को छीन लेने के जघन्य कृत्य पर जो नाराजगी और कड़वाहट महसूस की गई थी, उसे बताने के लिए मैं उसके कुछ शेर यहां पढ़ना चाहता हूं।


देहर पर तेरी शहादत ने ये साबित कर दिया
हद से बढ़कर नायक होना किस क़दर है ना रवा

(आपकी शहादत ने ये सिद्ध किया कि ज्यादा अच्छा होने की इजाजत नहीं है)



कातिलों में कत्ल-ए-इनसानी पे रोना जुर्म है
तुख्म-ए-नेकी सरजमीं-ए-दिल में बोना जुर्म है

(हत्यारों के बीच मनुष्य की हत्या पर रोना अपराध है, उसी तरह जैसे दिल में अच्छाई के बीज बोना)



जज्बा-ए-ख़िदमत से रातों को ना सोना जुर्म है
मुजरिमों के दरम्यां मासूम होना जुर्म है

(सेवा भावना से चिंतित होना उसी तरह जुर्म है, जैसाकि हत्यारों के बीच निर्दोष होना)

जब 1982 में पश्चिमी दर्शकों ने फिल्म ‘गांधी’ देखी, तो दूर-दराज के देशों के सैकड़ों नौजवान आधुनिक भारतीय इतिहास का अध्ययन करने के लिए प्रेरित हुए। इसके बावजूद आज हमारे अपने ही देश में हमारे बच्चों को उस व्यक्ति और उसके उपदेशों के बारे में शिक्षित करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसके बदले कुछ लोग तो उन्हें खारिज करने लगे हैं।

तो गांधी कौन थे? उन्होंने ऐसा क्या किया, जिस कारण करोड़ों लोग उनके अनुयायी बने? स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका क्या थी? राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर उनके लिए सम्मान या प्रशंसा का भाव उत्पन्न क्यों होता है? कुछ लोग उनकी विरासत की अहमियत घटाने की कोशिश क्यों करते हैं?

जब गांधीजी से उनके सपनों के भारत के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा था- ‘मैं ऐसा भारत बनाना चाहता हूं जिसमें सबसे गरीब भी महसूस करें कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज भी प्रभावशाली हो।’

उन्होंने बेलाग यह स्वीकार किया कि वे संत नहीं हैं और कहा कि ‘आचरण का स्वर्णिम नियम सहिष्णुता है, क्योंकि हम कभी एक जैसा नहीं सोच सकते। हमें हमेशा सत्य को टुकड़ों में और विभिन्न दृष्टिकोणों से देखना चाहिए।’

उनका व्यवहार यथार्थ पर आधारित था। उन्होंने कहा- ‘बाहर से हम सत्य और अहिंसा का पालन करते हैं। लेकिन अंदरूनी तौर पर हिंसा हमारे भीतर मौजूद है। हमारे व्यवहार में पाखंड रहा है, जिसके परिणामस्वरूप हमें पीड़ा और पारस्परिक कलह झेलनी पड़ी है।’

2011 में प्रकाशित एक जीवनी में जोसेफ लेलीवेल्ड ने टिप्पणी की थी कि ‘आज भारत में “गांधीवादी” शब्द सामाजिक अंतरात्मा का पर्याय है। साहस, दृढ़ता, निर्धनतम से खुद को जोड़ना, स्वार्थ का त्याग जैसे उनके उदाहरण आज भी प्रेरित करने की शक्ति रखते हैं।’

गांधीजी के उसूलों के प्रति क्या यह उनके एक विदेशी दोस्त और प्रशंसक की अकेली राय है? बापू की विरासत के प्रति हम असल में कितने सच्चे साबित हुए हैं?

आज आवश्यकता है कि हम सभी इसका आकलन करें कि अपने व्यवहार में इन सिद्धांतों के हम कितने निष्ठावान हैं।

उनके अंतिम दिन सांप्रदायिक नफरत को रोकने और उसके खिलाफ रणनीति बनाने में गुजरे। यह चुनौती आज तक हमारे सामने मौजूद है, क्योंकि मानवता, सहिष्णुता और समेकता की उनकी शिक्षाओं को हम पर्याप्त रूप से अपने भीतर नहीं उतार पाए हैं।

II

आज राजघाट से जाने वाले लोग पिछले वर्षों की तरह ही समाधि से थोड़ी दूरी पर मौजूद एक शिलालेख के सामने से गुजरे होंगे। उसका शीर्षक हैः सात सामाजिक पाप। महात्मा ने उसे 1925 में लिखा था और उन्हें वे मानवता के लिए आध्यात्मिक रूप से सबसे बड़े जोखिम मानते थे। मैंने अक्सर उस शिलालेख को पढ़ा है और उन्हें गांधीजी की शिक्षाओं का सार समझता हूं। उनका मैं यहां उल्लेख करना चाहता हूं-


सिद्धांत के बिना राजनीति
विवेक के बिना सुख
काम के बिना धन
चरित्र के बिना ज्ञान
नैतिकता के बिना वाणिज्य
मानवता के बिना विज्ञान
त्याग के बिना पूजा

इनमें से प्रत्येक वाक्य एक सिद्धांत है, जिसे अलग-अलग और सामूहिक रूप से समझा और अमल में लाया जा सकता है। असल में हर कथन के प्रथम शब्द में एक सिलसिला हैः सिद्धांत, विवेक, कार्य, चरित्र, नैतिकता, मानवता, त्याग। अगर हर सिद्धांत के आखिरी शब्द को मिलाकर साथ रखें तो वे मानव गतिविधि के अलग-अलग रूपों का सार प्रस्तुत करते हैं।

अतः गांधीवादी दृष्टि में विवेक मानवता और एक ऐसे नैतिक चरित्र को विकसित करने के उद्देश्यों से प्रेरित होता है, जो सैद्धांतिक दृष्टिकोण को सबसे ऊपर रखता है। इसका उलटा होगा सिद्धांतहीन और अवसरवादी नजरिया पैदा करने वाले स्वार्थ से चलना, जो ना तो न्यायोचित होगा और ना मानवीय।

उपदेश देना एक पहलू है, व्यवहार उसका दूसरा हिस्सा है। महात्मा गांधी की महानता इन दोनों के मेल में है। पूरी सच्चाई के साथ यह कहा जा सकता है कि उनका जीवन उनका संदेश था, जैसेकि कि उनके संदेशों को उनके जीवन में- यानी जिस तरह वे लोगों और स्थितियों से पेश आते थे, उसमें ढूंढा जा सकता है।

उन्होंने कहा कि अधिकारों का वास्तविक स्रोत कर्त्तव्य हैं। अगर हम सभी अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करें तो अधिकार हमसे दूर नहीं रह जाएंगे।

अपने दौर के महानतम भारतीय को श्रद्धांजलि देने के लिए यहां इकट्ठे हुए इस प्राचीन देश के नागरिकों के लिए कर्त्तव्य की अवधारणा का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 51-ए में हुआ है। इसमें ग्यारह मौलिक कर्त्तव्यों की सूची है। उनमें से कुछ को लेकर न्यायालयों में याचिकाएं दाखिल हुईं, उनमें से कई का अज्ञानतावश या जानबूझ कर प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लंघन किया गया है। उनमें से मैं यहां चार का उल्लेख करना चाहता हूं, जो बापू के जीवन और शिक्षाओं के खास करीब हैः


सद्भाव और भाईचारे का संरक्षण
मिली-जुली संस्कृति का महत्त्व समझना और उसका संरक्षण
पर्यावरण का संरक्षण एवं उसमें सुधार
वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं सुधार की भावना विकसित करना

इनमें से प्रत्येक का महत्त्व खुद जाहिर है। इन्हें बेहतर ढंग से समझने के लिए मेरा सुझाव है कि हम इनकी विपरीत स्थितियों पर गौर करें और निम्नलिखित स्थितियों की कल्पना करेः समाज में वैर-भाव और विवादों को बढ़ावा देना, हमारी मिली-जुली संस्कृति में अंतर्निहित पहलुओं की अनदेखी और उनसे अलगाव, पर्यावरण का संरक्षण ना करना, और पूर्वाग्रह एवं अंधविश्वासों को कायम रहने देना।

इस अनुच्छेद में सूचीबद्ध अन्य सभी कर्त्तव्यों के मामले में भी ऐसी कल्पना की जा सकती है और उनके संभावित अस्वीकार्य परिणामों के बारे में सोचा जा सकता है। इससे गांधीजी के सिद्धांतों की पुष्टि होती है।

हम इन कर्त्तव्यों की प्रति कितने सच्चे हैं? इसे जांचना सही कदम होगा, क्योंकि हमारे गणतंत्र के हर ऊंचे पद को संभालने से पहले संबंधित व्यक्ति संविधान की तीसरी अनुसूची के अनुरूप ‘संविधान में सच्ची आस्था एवं निष्ठा’ रखने की शपथ लेता है। इसके अलावा राष्ट्रपति और राज्यपालों पर ‘संविधान के प्रतिरक्षण, रक्षा एवं संरक्षा’ का दायित्व भी होता है।

गांधीजी की राय में लोकतंत्र ऐसी स्थिति नहीं थी, जिसमें लोग भेड़ों की तरह व्यवहार करें। लोकतंत्र में विचार एवं कार्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बड़ी मेहनत से रक्षा करनी पड़ती है। गांधीजी की राय में ‘सरकार ऐसी बुराई है, जिसकी निगाह में अच्छे पुरुष और महिलाओं की जगह सिर्फ जेल में ही होती है।’

आज राष्ट्रीय सूरत-ए-हाल पर सरसरी नजर डालें, तो हमें परेशान करने वाले मंजर देखने को मिलते हैं। सद्भाव के स्तर में स्पष्ट गिरावट आई है। सहनशीलता और मेलजोल की युगों पुरानी परंपरा की अनदेखी करते हुए समाज में कृत्रिम विवाद फैलाए जा रहे हैं। अपनी मिली-जुली सांस्कृतिक परंपराओं के सम्मान की जगह काल्पनिक एकल-संस्कृति को लाने कोशिश हो रही है, जिसमें हमारी आबादी के कई हिस्सों के अनुभव प्रतिबिंबित नहीं होते। यही बात पर्यावरण के संरक्षण को लेकर भी लागू होती है। अपने इस शहर (दिल्ली) में (पर्यावरण संबंधी) नियमों और न्यायालय के निर्देशों के उल्लंघन से अपूरणीय क्षति हो चुकी है। और विज्ञान के इस युग में, अंधविश्वासों को संरक्षण देने तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नजरअंदाज करने से बाहरी दुनिया में हमारा उपहास हो रहा है, जहां हम अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रचार करना चाहते हैं।

क्या इनमें से किसी बात को बापू का आशीर्वाद मिलता?
III

हमारी आज की और भावी दुनिया में- राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर- गांधीजी की प्रासंगिकता क्या है? हम लगातार एक-दूसरे से जुड़ रही दुनिया में जी रहे हैं, जहां दूरियां घट रही हैं, और हमारे सामने साझा खतरे और एक दूसरे से जुड़ी चिंताएं मौजूद हैं। आज मानवता के साझा हित को अलग-अलग समूहों के हित पर तरजीह देनी होगी और ये बात हमारी सोच एवं व्यहार में झलकनी चाहिए। अतः गांधीजी के बंधुत्व, सहानुभूति और अहिंसा के संदेश के अनुरूप मानव मस्तिष्क को तैयार करना होगा।

गांधीजी इस प्रचीन कहावत में यकीन करते थेः शिक्षा वह है जो मुक्ति दे। उन्होंने कहा कि नए विश्व के निर्माण के लिए नई प्रकार की शिक्षा अनिवार्य है। उन्होंने कहा- ‘शिक्षा से मेरा मतलब बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन एवं भावना में निहित सर्वश्रेष्ठ पहलुओं को उभार कर सामने लाना है। साक्षरता शिक्षा का अंत नहीं, बल्कि उसका आरंभ है। हस्तशिल्प, कला, स्वास्थ्य और शिक्षा को एक योजना में समेकित किया जाना चाहिए।’ उन्होंने नई तालीम का आह्वान किया। शिक्षा के प्रति ऐसी दृष्टि का उद्देश्य मस्तिष्क का प्रशिक्षण एवं उसे बंधन-मुक्त करना, मानव मात्र के लिए उसमें सहानुभूति पैदा करना और राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर बेहतर नागरिक के निर्माण में सहायक बनना है।

गांधीजी आधुनिक समय में अहिंसा के महानतम प्रवक्ता थे। उन्होंने इस मान्यता को ठुकरा दिया कि ताकत को सिर्फ ताकत से ही झुकाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि आंख के बदले आंख के सिद्धांत का नतीजा होगा कि सारी दुनिया अंधी हो जाएगी। अहिंसा को उन्होंने हर स्थिति के लिए उपयुक्त माना। कहा- ‘मैं अपनी एक गतिविधि में अहिंसक और दूसरी में हिंसक नहीं हो सकता। अथवा ऐसा नहीं है कि अहिंसा का पालन व्यक्ति करेंगे, लेकिन व्यक्तियों से बने राष्ट्र नहीं। उन्होंने इस विचार को सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों का उपकरण बनाया और टकरावों के समाधान के तरीके के रूप में अपनाया। उन्होंने कहा कि निष्क्रिय प्रतिरोध (सत्याग्रह) सबसे स्पष्ट एवं सुरक्षित तरीका है, क्योंकि अगर उसका उद्देश्य सच्चा ना हुआ, तो उसकी पीड़ा केवल प्रतिरोधियों को ही भुगतनी पड़ेगी।

30 दिसंबर 1939 को ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा कि ‘अगर भारत अहिंसक रास्ते से आगे बढ़ा, तो उसे कई चीजों को विकेंद्रित करना होगा, क्योंकि केंद्रीकरण टिकाऊ नहीं है और बिना पर्याप्त शक्ति के उपयोग के उसे बचाया नहीं जा सकता।

अहिंसा के विचार के अनुयायी दुनिया भर में पैदा हुए। दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में इसका काफी सफलतापूर्वक इस्तेमाल हुआ। फिलीपीन्स, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया जैसे देशों में आंदोलन और नेता इससे प्रेरित हुए। जब-तब कब्जे वाले इलाकों में फिलस्तीनियों ने इजराइल के खिलाफ इसका सहारा लिया है। यह 2009 में पुरस्कार जीतने वाली बहु-प्रशंसित डॉक्यूमेंटरी बद्रुस (Budrus) की विषयवस्तु थी, जिसमें एक सैनिक का यह वक्तव्य शामिल था कि ‘सेना अहिंसक प्रतिरोध से जितना भयभीत होती है, उतना किसी और चीज से नहीं।’

गांधी ना तो पुरातनपंथी थे और ना ही संकीर्ण राष्ट्रवादी। उन्होंने कहा था-  ‘मैं इस अंधविश्वास में यकीन नहीं करता कि हर जो चीज प्राचीन है, वो अच्छी है। ना ही मैं इसमें विश्वास करता हूं कि हर चीज सिर्फ भारतीय होने की वजह से अच्छी है।’ बापू के इन शब्दों की स्थायी प्रासंगिकता है।

IV

मित्रों, हमारा विश्व- स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय- टकरावों से भरा है। ऐसा नहीं लगता कि हम इस मकड़जाल से निकलने का रास्ता ढूंढ पाए हैं। क्या महात्मा की शिक्षाएं इसमें सहायक हो सकती हैं?

मेरी राय में वे हमें राह दिखा सकती हैं। अनुभव से जाहिर है कि ताकत और हिंसा का सहारा लेने से समस्याएं हल नहीं होतीं। बल्कि अंततः विरोधी पक्ष वार्ता एवं मेल-मिलाप का ही सहारा लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में राष्ट्रों की गतिविधियों में तालमेल लाने के लिए सहिष्णुता एवं अच्छे पड़ोसी की भावना के मुताबिक चलने की वकालत की गई है। अर्थात नागरिकों के राष्ट्रीय कर्त्तव्य और देशों के अंतरराष्ट्रीय दायित्व- दोनों नजरिए से सद्भाव एवं बंधुत्व के सिद्धांत महत्त्वपूर्ण हैं। यह अलग बात है कि दोनों में अक्सर इसकी अवहेलना होती है। इसके बावजूद दोनों में कोई ये दुस्साहस नहीं करता कि वह इस सिद्धांत को छोड़ दे अथवा दूरियां घटाने की दिशा में चलने से तौबा कर ले।

और यही मानवता के लिए उम्मीद की किरण है। और यही मोहनदास करमचंद गांधी की प्रासंगिकता है।

जय हिंद